Saturday, September 26, 2009

कविता मेरी -तुम्हारी


मैं - तुमसे

मैं दिन के उजालों में तुम्हे कैद करके
रात के सन्नाटों में थाम लूंगा

तुम समय को थामे रखना
सपनो के लिए
अरमानों के लिए
कोई सपनो की बात हो
कोई दिल को जुबां न दो
एहसास ही हो
सपना ही हो
क्या पता तुम ही हो !!!


तुम -- मुझसे

जिंदगी के अनजाने रास्तों पर
ये कौन मिला , ढलती हुई शाम में

उम्र के इस मोड़ पर ही , तुम्हे मुझसे मिलना था .
कुछ कदम ,पहले मिले होतें तो मैं साथ चल लेती..
तुझे अपने आप में समेट लेती ...

मैं - तुमसे

खुदा की बातें खुदा ही जाने
मेरे आंसू तो तुम पोछ लो ..
आज में तेरे दरवाजे पर खड़ा हूँ
कल किसी अंधेरे में खो जाऊंगा

मेरी याद आए तो कहना
एक एहसास था
एक सपना था
या फिर कोई था

तुम - मुझसे

तुम ही हो या सपना ही हो ,
अभी किसने मेरे लबो को चूमा था
अभी किसने मेरे कानो में सरगोशी की थी
अभी किसने मुझे थामा था

तुम ही हो या मैं कोई सपना देख रही हूँ ...
शायाद मैं तुम्हे देख रही हूँ

2 comments:

  1. waah........premi - premika ke prem ko bahut hi sundar shabdon mein bandha hai..........bahut hi sundar kavita.

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  2. vijay ji bahut sunder kavita hai.

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